क़ीमत

देख के शोहरत उसकी
होती है एक ख्वाहिश
क्या था मेरा कभी क्या नहीं
था ये था वो नहीं।
रेत को धर लेंगे मुट्ठी में
पर हाथ में रह गए कुछ कंकड़
थे वो रेत या वो कंकड़
या थे वो चूर हुए हीरे।
क्या जानने की थी ज़रूरत
या पकड़े रखने का कोई मतलब
जानना न था ज़रूरी
जो भी थे, थे वो मेरे।
जब शौक था तज़ुर्बे का
तो क्या थी ज़रूरत कसी मुट्ठियों की
खोल दिया उन्हीं मुट्ठियों को
और भर लिया उस रेत को शीशी में।
आज जब देखूँ उस शीशी को
याद आते हैं वो बीते पल
वही जज़्बा वही बागीपन
क्या कोई लगा सकेगा उसकी क़ीमत?

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